Gubbara

Enjoy the enchanting world of “Millennium Nights,” a novel by Navodayan author Azeem Shah. This story unfolds in the heart of Navodaya hostel life, where friendships are crafted through shared dreams. Picture the hostel nights filled with laughter, midnight talks, and the shared journey of aspirations. Azeem Shah, a Navodayan himself, narrates a tale that goes beyond the ordinary, capturing the unique bond that ties Navodayans together. In this literary journey, we explore the warm and sometimes challenging world of hostel life in Navodaya, where every night paints a picture of cherished memories. Join us in discovering the beauty of these shared experiences.

हाॅस्टल और नीचे मैदान में शांत माहौल के बावजूद छत के ऊपर लड़कों की भीड़ के कारण बहुत शोर हो रहा था। ऊपर एक विशालकाय गुब्बारा था जो फूलकर उड़ने को तैयार था।

तभी मोहित किसी नायक की तरह आगे बढ़कर उस पर सवार हो गया। उसे चढ़ते हुए देखकर सभी आश्चर्य से उसे निहार रहे थे। वह एक विजेता की तरह सभी को अपनी तरफ हाथ हिलाते देख रहा था। धीरे-धीरे गुब्बारा उठकर आसमान की तरफ जाने लगा तो उसने ऊपर से पूरा नज़ारा देखा। स्कूल बिल्डिंग, पानी की टंकी, गर्ल्‍स हाॅस्टल और बाॅयज़ हाॅस्टल ऊपर से दिखाई दे रहे थे। देखते ही देखते सब कुछ छोटा दिखाई देने लगा।

उसमें एक जाॅकी थी जिससे वह गुब्बारे को अपनी मर्ज़ी से नियंत्रित कर सकता था। उसका ध्यान गर्ल्‍स हाॅस्टल की छत से हाथ हिलाकर अपनी तरफ बुलाती लड़कियों पर गया। उसने सावधानी से जाॅकी घुमाई तो वह गर्ल्‍स हाॅस्टल की तरफ बढ़ने लगा और फिर धीरे से उनकी छत में उतर गया। लड़कियों को मोहित किसी सुपर हीरो की तरह लग रहा था। भूमिका तेजी से उसकी तरफ दौड़ी। वह किसी को कोई मौका नहीं देना चाहती थी।

“मुझे भी घुमाओ मोहित तुम्हारे यू.एफ.ओ. में।“ भूमिका दूर खड़ी होकर बोली।

“नहीं बिल्कुल नहीं।“

“प्लीज़ मोहित।“ शायद उसने जीवन में पहली बार प्लीज़ शब्द का इस्तेमाल किया होगा जो उसके स्वभाव से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता था।

“नहीं, तुम थोड़ा ज़्यादा मोटी हो।“ मोहित ने उसे चिढ़ाया।

मोटी शब्द से भूमिका बेहद चिढ़ती थी हालांकि उसका खून खौलने लगा था फिर भी वह अपने गुस्से को काबू कर गई। तब तक सुमन उसके पास पहुँच चुकी थी।

“अरे सुमन! तुम्हंे करना है क्या आसमान की सैर?“ मोहित ने झट से कहा।

मोहित के आग्रह से भूमिका ने गुस्से से मोहित की तरफ देखा क्योंकि घूमने की चाह लिये दौड़कर आने वाले से वह भाव खा रहा था जबकि सुमन को ले जाने तैयार हो गया।

“ऐ, इधर देख इधर।“ भूमिका ने गुब्बारे की एक रस्सी पकड़ ली थी।

तब तक सारी लड़कियों ने उन्हें घेर लिया था। रंगीन विशाल गुब्बारा अब भी आसमान में स्थिर था।

हा, हा, हा, तुम्हारे पकड़ने से क्या होगा? क्या यह उड़ना बंद कर देगा?“

“नहीं, मैं न इसकी रस्सी काट दूँगी।“ भूमिका गुस्से से बोली।

“आ गई फिर से तुम अपनी औकात में। जब तुम लोगों को ही घुमाने के लिये यहाँ उतारा है, तो तुम इतना नाटक क्यों कर रही हो?“

“नाटक, मेैं कर रही या तू कर रहा?“

“दी, थोड़ा चिल। हम सबके लिये जगह है इसमें।“ निशा ने भूमिका से कहा।

“देखा, इस लड़की को तुमसे ज़्यादा समझ है। तुम्हारी तरह गुस्सा सिर पर लिए नहीं घूमती, और ना ही तुम्हारी तरह नथुने फुलाती रहती है, फिर भी आ जाओ तुम लोग।“ मोहित ने भूमिका की आँखों में आँखें डालकर हाथ से इशारा किया।

सुमन तो यही सुनने को तैयार थी वह उसमें चढ़ी और भूमिका को अपनी तरफ खींचा। भूमिका ने गुस्से से अपना हाथ सख्त किये हुए था।

“अरे, आ ना यार।“

सुनकर भूमिका ने एक गहरी साँस भरी और मुँह फुलाकर धीरे-धीरे हवा निकालकर उस पर चढ़ गई। मुँह से निकली हवा के साथ ही उसका गुस्सा भी बाहर निकल चुका था।

“छोटू, तू भी आजा जल्दी।“ सुमन ने निशा को हाथ देकर कहा।

अब गुब्बारे में मोहित, भूमिका, सुमन और निशा थे।

“मैं भी, मुझे भी आना है।“ विभा ने रस्सा पकड़कर कहा।

“नहीं, अब और नहीं। इससे एक भी ज़्यादा हुए तो गुब्बारा उड़ नहीं पायेगा।“ मोहित ने उसे मना कर दिया। सुनकर विभा ने आखिरकार रस्सा छोड़ दिया।

अब एक बार फिर गुब्बारा धीमी गति से ऊपर जाने लगा। ऊपर जाते ही भूमिका ने मोहित को ज़ोर से पकड़ लिया।

“यह क्या है? ठीक से रहो। मुझे छोड़ो, पहले वहाँ पकड़ो।“ मोहित ने रस्से की ओर आँख से इशारा किया।

“उतारो, उतारो मुझे। नीचे देखकर चक्कर आ रहे हैं मुझे।“ भूमिका चीखने लगी।

“आप चुपचाप नीचे बैठ जाइये यहाँ, और सिर्फ आसमान की तरफ देखिये।“

“अरे, वह देखो वहाँ। कबूतर उड़ रहे हैं।“

“चलो, मैं घुमाता हूँ तुम्हें। देखो, यह रहा अपना मुख्य द्वार, और इस तरफ तालाब जहाँ हम लोग कपड़े धोने आते हैं।“

“अच्छा यहाँ भी तालाब है। इसे तो हमने कभी देखा ही नहीं। हम तो सोचते थे कि तुम लोग हैंडपंप के पानी से कपड़े धोते होगे।“

“इतने सारे लड़के और इतने सारे कपड़े। अगर सभी हैंडपंप का वेट करें तो दिन भर एक ही काम करते रहेंगे हम लोग।“

निशा ने उसके आगे नज़र दौड़ाई जहाँ पतली सी काली सड़क किसी नागिन की तरफ बलखाये थी। उसे देखते ही निशा ने पूछ लिया,

“और यह कौन सी सड़क है?“

“यह, यह तुम्हें नहीं मालूम? बरघाट रोड है, जहाँ हम लोग सद्भावना रैली में जाते हैं दूर तक। वह देखो, वहाँ पुल दिखा तुम्हें?“ मोहित ने सुमन से पूछा।

“हाँ, अब याद आया। वहाँ तक तो हम भी जा चुके हैं। उससे कुछ और आगे तक।“ सुमन ने हाथ दिखाकर इशारा किया।

भूमिका ऊँचाई के डर के कारण अब भी केवल आसमान की तरफ देख रही थी। वह ऊँचाई से बुरी तरह डर गई थी। उसे लग रहा था कि कहीं वह चक्कर खाकर नीचे ना गिर जाये जबकि गुब्बारा धीमे से उड़ रहा था।

“अब यहाँ देखो। ये छोटे-छोटे पेड़ नज़र आये तुम्हें? ये हैं…“ मोहित कह रहा था।

“संजय वन है ना?“ भूमिका उठकर खड़ी हो गई।

“मुझे पता था तुम ही बोलोगी।“

“अब आगे देखो।“

“अरे, वहाँ देखो वहाँ। फूटाताल कितना छोटा दिख रहा है। उसी में कमल के पौधे भी दिख रहे हरे-भरे। अरे, ये स्कूल बाउंडंी के एकदम किनारे पर कितने सारे रेडीमेड पुल के पाइप बने रखे हैं।“

“क्यों तुमने पहले कभी नहीं देखा क्या?“

“नहीं, हम लोगों ने उस बाउंड्री को कभी क्राॅस नहीं किया, और ना ही इस तरफ से आये।“

“हाँ, तो यह हम जैसे लड़कों का काम है।“ कहते हुए मोहित ने अपनी काॅलर खड़ी की।

“हुँह, तुम लोग तो ऐसा ही बेकार काम कर सकते हो।“

“अच्छा, उतारूँ तुम सबको अभी यहाँ? तैरना आता हो तो बताओ।“ मोहित ने फूटाताल की तरफ इशारा किया जिसके ऊपर वे उड़ रहे थे।

“ये आधा-अधूरा घुमाना, ये भी कोई बात हुई। अब चलो बस स्टैंड की तरफ ले चलो हमें।“ सुमन ने मोहित से कहा। वे लोग उसी दिशा में चल पड़े।

“यहाँ देखो, हाई स्कूल जहाँ स्पोटर्स में आते थे हम लोग। निशा को तो इस बारे में कुछ भी पता नहीं होगा, और वह रहा वाॅलीबाॅल मैदान।“

“हाँ… काफी एक्सरसाइज़ की है यहाँ आकर, और शायद जुलाई में सर्कस भी आया था जब हम लोग आठवीं में थे।“

“हाँ, इसी मैदान में था वह। बहुत से जानवर थे। एक राज़ की बात बताऊँ, मैंने साइकिल वाला स्टंट इसी से सीखा था। खैर अब मैं प्लेन चलाने लगा हूँ।“ मोहित ने अपना रौब जमाते हुए कहा।

“बस-बस इतना मत फेंको।“

“भूमि! तुम मुझसे जलती क्यों हो?“

“मैं, मैं क्यों जलूँगी? तुम खुद इतना फेंकते हो कि…“

“मोहित जेब में कुछ रुपये हैं क्या? डायमंड के समोसे खिला दे यार।“

सुमन ने बीच में विषय बदल दिया।

“मैं क्यों खिलाऊँ? तुम्हें खिलाना चाहिए। ये सब मैं नहीं करने वाला। एक तो महारानियों को घुमाओ और ऊपर से अपने पैसे भी खर्च करो।“

“अच्छा बाबा, मत खिलाओ बस। हम लोग ऊपर से चलती तेज़ हवा ही खा लेंगे।“

“इस तरफ देखो नीरज और महावीर। सारे तेल, पेस्ट और साबुन यहाँ के लिये बेचे जाते हैं।“

“ओह, तो थियेटर के लिये ये सब बेच देते हो तुम लोग?“

“हम लोग नहीं। हैं कुछ लड़के, जो ऐसा करते थे। अब यह कुछ कम हुआ है।“

“तुमने कितनी फिल्में देखीं अब तक?“

“ठीक से याद नहीं, यही कोई दस-पंद्रह।“

“दस पंद्रह। इतनी फिल्में देख चुके हो तुम?“ सुमन ने हैरानी से उसे ऊपर से नीचे तक देखा।

“अरे यह तो कुछ भी नहीं। कई लड़के तो शतक लगा चुके हैं।“

“दी! देखो वहाँ।“ निशा ने अनायास ही चहकते हुए कहा, “एकदम हरा मैदान जैसे किसी ने पेंटिंग की हो।“

“अरे हाँ कितना समतल भी है। मोहित यहाँ उतारो ना।“

“हे, हे, हे!“ मोहित हँसने लगा।

“अब तुम्हें हँसी क्यों आ रही है?“

“पता भी है कि तुम क्या कह रही हो? वो देखो ऊँचाई पर मस्जिद, और ये उसके बिल्कुल सामने तालाब जो एलगे से हरा हो चुका है।“

“आउच, तो ये तालाब है, पानी है यह हरे रंग का? सचमुच!“

“कहो तो नीचे उतार दूँ तुम लोगों को?“

“जाने दो, अब आगे लेकर चलो हमें।“

“यहाँ देखो, यहाँ बाज़ार भरता है, और ये है दुर्गा चौक का दुर्गा मंदिर, जहाँ तुम लोग नवरात्रि में चरण-वंदन करने आते हो।“

भूमिका ने देखते ही श्रद्धा से अपनी आँखें बंद करते हुए दोनों हाथ जोड़े।

“हाँ, हाँ तुम्हारी मन्नत अभी के अभी पूरी हो जायेगी।“ मोहित ने भूमिका के सिर के ऊपर अपना हाथ रख दिया।

“मुझे तुम्हारे आशीर्वाद की ज़रूरत नहीं।“

“कुछ तो माँगा होगा?“

“वो तो देवी माँ और हमारे बीच की बात है।“ भूमिका ने शर्माते हुए कहा।

“अब देखो वहाँ, ट्रैन खड़ी है, पटरी में जाना है क्या तुम्हें?“

“ये घोड़ागाड़ी? मैं तो कभी ना बैठूँ इस पर।“

“एशिया की नामी ट्रैन है, जो अगले कुछ सालों में हमेशा के लिये बंद हो जायेगी।“

“तुम्हारी यह बात मैं मान ही नहीं सकती।“

“मत मानो।“

कुछ देर के लिये मोहित शांत हो गया।

“अब देखो यहाँ। यह अपना पुराना हाॅस्टल; तुम्हारा गार्गी और मैत्रेयी हाउस, मेस और यह सामने वाला हमारा हाॅस्टल।“

“एकदम सूना सा हो गया है।“ सुमन देखकर ऐसे उदास हो गई जैसे गर्ल्‍स हाॅस्टल की सारी यादें एक झटके में आँखों के सामने चली आई हों। वे लोग उस छोटे से मैदान में बहुत मौज-मस्ती किया करते थे। वहाँ सुबह-शाम असेंबली की लाइन लगा करती थी और कई बार साथ मिलकर फिल्में भी देखे थे।

“और अब यहाँ, यह है हमारा ताज़ा स्विमिंग पुल यानी नहर। यहाँ भी हम लोग कपड़े धोने और नहाने आते हैं।“

“तुम लोग सब जगह घूमते ही रहते हो।“

“हाँ, हम लोगों का तो यही काम है, और वहाँ देखो अब फिर से हम अपने हाॅस्टल तक पहुँच रहे हैं। उस मैदान में इंटरनेशनल फुटबाॅल और क्रिकेट चलता है हमारा।“

“इंटरनेशनल?“

“हाँ, जब बाहर की टीम से मैच होता है तो यहाँ खेलते हैं हम लोग।“

“अपने ग्राउँड में क्यों नहीं?“

“अपने खड़ूस प्रिंसिपल हैं ना, जिनके अनुसार क्रिकेट गु़लामों का खेल है और हमें नहीं खेलना चाहिए।“

“ऐसा कहते हैं क्या?“

“हाँ, वे तो बस कबड्डी और खो-खो खेलते देखना चाहते हैं हमें।“

“अरे, ये बातों-बातों में कहाँ ला लिया हमें मोहित? बाॅयज़ हाॅस्टल की छत में?“

“अरे हाँ, लेकिन जब यहाँ आ ही गए हो तो तुम्हें हमारा कमरा दिखाता हूँ।“

“नहीं, मुझे नहीं जाना है। पता नहीं तुम लोग कैसे रहते होगे रूम में।“

भूमिका ने मुँह बनाते हुए कहा।

“देखो तो सही। यह छत तक्षशिला हाउस की है और हम लोग वहाँ रहते हैं।“ मोहित गुब्बारे से बाहर उतरकर उन्हें समझाने लगा और तीनों उसके पीछे चलने लगे।

“इधर से यह चट्टान वाला मंदिर कितने पास दिखता है ना।“

“संभलकर।“ मोहित ने सीढ़ी से उतरती सुमन से कहा। वे सीढ़ी से लगी राॅड को पकड़कर नीचे उतर रहे थे। नीचे लोहे का दरवाज़ा बंद था जिसे मोहित ने अपने कंधे से धक्का देकर खोला। कमरा पूरी तरह खाली था।

“यह देखो यह तीसरे नंबर का बेेड, यह शिवम का, यह विवेक का और इस तरफ राहुल का, फिर सौरभ और यहॉं दीपक, सुदीप, रमन का।“

एक बार फिर दरवाज़े के चरमराने की आवाज़ के साथ राहुल और सौरभ अंदर आये।

“तुम! तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो?“

“अरे, मेरे साथ आये हैं ये लोग।“ मोहित ने जवाब दिया।

“अबे, तू पागल है क्या? यहाँ क्यों लेकर आ गया इन्हें?“

“हमें कोई आने का शौक नहीं लगा। मोहित ने हमें गुब्बारे से छत पर उतार दिया तो हम लोग वापस कैसे जाते सीढ़ी से ही तो उतरते ना।“

“तो सीढ़ी से ही उतरना था ना, यहाँ घुसने की क्या ज़रूरत थी।“

“हो भी गया। तुम लोग हमेशा लड़ने के लिये मौका ही तलाशते रहते हो। हम खुद चले अब।“ कहते ही भूमिका ने जैसे ही अपने कदम आगे बढ़ाये,

मोहित बोल उठा, “अरे रुको, इसकी तो आदत है बक-बक करने की। चलो मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ।“

“मैंने तो ऐसे ही कह दिया, बाय द वे, वेलकम टू अवर रूम।“ कहते हुए राहुल ने उन्हें पलंग में बैठने का इशारा किया। वह सुमन को ऐसे ही नहीं जाने देना चाहता था।

“मोहित…।“ उनके बैठते ही कपबोर्ड रूम से किसी की आवाज़ आई। आवाज़ सुनकर मोहित जैसे ही उस तरफ गया। सुदीप को अपने शरीर में ढेर सारा तेल चुपड़ते हुए देखकर वह चीख पड़ा।

“अबे, तू क्या कर रहा है यहाँ?“

“यार, मैं यहाँ आया ही था कि तुम लोग…“

“तो नालायक, कुछ तो पहन लिया कर। शर्ट तो छोड़ बनियान तक नहीं पहना तूने।“

“यार मेरे बेड से शर्ट ला देना जल्दी।“

“अच्छा हुआ जो वे लोग यहाँ तक नहीं आये, वरना…“ गहरी साँस लेते हुए मोहित सुदीप के पलंग की दीवार में टाँगे गए कपड़े में से एक शर्ट निकालकर सुदीप को थमा दिया।

“शर्ट पहनने के बाद आते टाइम पानी ला लेना। इनको पिलाना है।“

थोड़ी देर में उसे कुछ याद आया और वह दौड़ते हुए फिर से कपबोर्ड रूम की तरफ दौड़ा। उधर से सुदीप भी बाहर निकला ही था, “अरे, रुक, रुक वहीं। इधर दिखा मुझे गिलास और यह केन।“

“क्यों अब क्या हुआ?“

“तौलिये में जाकर पानी पिलायेगा क्या?“

“यार, मेरा पैंट भी ला दे प्लीज़।“ सुदीप ने एक बार फिर अपनी नज़र नीचे की तरफ करते हुए कहा।

मोहित ने झट से उन्हें पानी दिया और सुदीप का पेंट लेकर वापस गया।

“कौन है वहाँ?“ भूमिका ने पूछा।

“क… क कोई नहीं, कोई भी तो नहीं।“

तभी सुदीप अपने कपड़े बदलकर दाँत दिखाते हुए सामने आया।

“अरे कोई नहीं, कहाँ थे तुम?“ भूमिका ने पूछा।

“यहीं तो था।“ सुदीप ने अपने अंदाज़ में तौलिया अपने पलंग के पास टाँगते हुए कहा।

“हाँ चलो अब चलें?“ मोहित की आवाज़ के साथ सभी उठ गए।

मोहित सीढ़ी से नीचे उतरने लगा।

“अरे यहाँ नहीं ऊपर चलो। अपने बलून से तुम्हें छोड़ देता हूँ।“ अचानक रुककर बोला।

वे लोग छत पर पहुँचे लेकिन अचानक मोहित चिल्लाने लगा।

“मेरा बलून लेकर कौन चला गया? जल्दी बताओ।“

“अरे, अरे क्या हुआ? कहाँ का बलून? कौन सा बलून?“ राहुल ने पूछा।

मोहित ने अपनी आँखें खोली और एक पल के लिये आसपास देखने लगा। फिर कुछ देर बाद पूछा, “नाश्ते का टाइम हो गया क्या?“

“हो भी गया और सब लोग वापस लौटकर आने भी लगे, लेकिन तू यह तो बता कि आज क्या देखा?“

“पूछो मत यार। आज तो भाई मज़ा आ गया।“ मोहित मुस्कुराते हुए उठा और टूथपेस्ट निकालकर फटाफट ब्रश करने लगा।

As we come to the end of this journey through Navodaya memories, we hope you enjoyed reading about the hostel life that shaped us all. If these stories and poems brought a smile to your face or triggered a fond memory, why not share them with your Navodayan friends? Let’s relive those beautiful moments together. Share this post, tag your friends, and spread the joy of Navodaya. In every share, we’re creating a digital reunion, a chance for someone to reconnect with the warmth and camaraderie of our alma mater. Keep the Navodaya spirit alive by sharing the joy!

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