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Hawa Hawai Se Panga : Story
मोहित कुछ देर बाद मेस पहँुचा किन्तु नाश्ते के लिए लंबी लाइन देखकर पीछे खड़े होने के स्थान पर वह काउंटर के पास खाली जगह देखने लगा।
अखिल सर की ड्यूटी लगी हुई थी। जैसे ही उनकी नज़र पड़ी, उसे तुरंत अपने पास बुलाया।
“हवाई जहाज़ की तरह उड़ मत जाना।“ कहते हुए उन्होंने मोहित को अपने एक ही हाथ से ऊपर उठा लिया। मेस में सभी उस दृश्य को देखकर मुस्कुराने लगे। उसका वज़न बहुत कम होने के कारण शिक्षक को भी मज़ा आने लगा।
“अरे, तू तो सच में हवाई जहाज़ जैसा है।“ उन्होंने हँसते हुए कहा।
मोहित ने सुनकर भी कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर बाद शिक्षक के छोड़ते ही वह लाइन में जाकर खड़ा हो गया। आसपास के लड़के अब उसका मज़ाक उड़ा रहे थे। उसने उनकी बातों का ध्यान नहीं दिया। वह अपनी बारी का इंतज़ार करता रहा। काउंटर से दो चम्मच फ्राइड राइस लेकर वह बाहर धूप में निकल गया जहाँ ढेर सारे लड़के खड़े होकर नाश्ता कर रहे थे। वहाँ भी उस घटना की चर्चा कर लड़के मज़ाक उड़ा रहे थे।
जाड़े की ज़बरदस्त ठण्ड के कारण अटेंडेंस के बाद से ही लड़के-लड़कियाँ छत पर जाकर पढ़ने की ज़िद करने लगे। उनके अनुरोध को ठुकराकर शिक्षक क्लास लेने लगे। दुबला-पतला मोहित ठंड से काँप रहा था। उसने स्वेटर तक नहीं पहनी थी।
“ऐ! तुम इतना क्यों काँप रहे हो?“ शिक्षक ने मोहित से पूछा।
“बहुत ठंड लग रही है सर।“ मोहित की आवाज़ लड़खड़ा रही थी। तेज़ ठंड से उसकी पीठ अकड़ रही थी। वह दोनों हाथ सीने में बाँध कर दाँत किटकिटा रहा था। लग रहा था जैसे वह ठंडा पानी सिर में उड़ेलकर तुरंत चला आया हो। उसे देखकर शिक्षक सोच में पड़ गए।
“अच्छा ठीक है। चलो छत पर चलें।“ कुछ देर बाद जब उन्हें दया आई तो बोल पड़े।
बच्चे ऐसे खुश हो गए जैसे क्लास बंद होकर खेल का पीरियड लग गया हो।
छत पर सभी ने अपना स्थान तय कर लिया था। सारे बच्चे झुंड बनाकर बैठे थे तभी सौरभ कुर्सी लेकर पहुँचा और उनके सामने ले जाकर रख दिया। शिक्षक ने कुर्सी सरकाकर दूर की और उस पर बैठ गए। छत पर तीन फीट ऊँचे घेरे के कारण नीचे बैठने के बाद कोई भी बाहर नहीं देख पाता था। केवल कुर्सी में बैठे शिक्षक की नज़र ही बाहर जा सकती थी।
“आज कौन पढ़ेगा? हाँ विभा तुम उठो।“ शिक्षक ने सामने बैठे छात्र की पुस्तक उठाते हुए कहा।
“यस सर।“ कहकर विभा खड़ी हुई और शताब्दी एक्सप्रेस की गति से पढ़ने लगी। बीच में एक शब्द आया जिसे वे समझाने लगे।
“तुम लोगों को एक-एक शब्द समझाना पड़ता है। तुम लोग पता नहीं क्यों हाउस से पढ़कर नहीं आते हो।“ वे फटकार लगाकर चले गए।
कुछ लड़के अपने साथ काॅमिक्स लाए थे जिसे पुस्तकों के बीच में दबाकर पढ़ रहे थे। मोहित भी बड़े ध्यान से पढ़ रहा था लेकिन दायीं तरफ बैठा शैलेन्द्र उसे पढ़ने ही नहीं दे रहा था। बार-बार उसे हिलाता या धक्का देता। मोहित जब भी घूरकर देखता तो हवाई-जहाज़ कहकर मज़ाक उड़ाने लगता।
कुछ देर बाद मोहित ने काॅमिक्स पढ़ना बंद कर दी। वह काॅपी में कुछ लिख रहा था लेकिन शैलेन्द्र के कारण उससे गड़बड़ हो रही थी। वह बार-बार घूरकर देखता किन्तु उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। सब लोग अपने-अपने काम में व्यस्त थे। कोई पढ़ रहा था तो कोई गपशप में समय बिता रहा था
तभी अचानक एक तेज़ चीखती आवाज़ सुनाई दी। सब लोगों का ध्यान शैलेन्द्र की तरफ गया। वह अपनी जाँघ पकड़कर चीख रहा था। इससे पहले कोई समझ पाता उसका काम हो गया था। तंग आकर मोहित ने ज्योमेटंी बाॅक्स से परकाल निकालकर शैलेन्द्र की जाँघ में घुसा दिया था। वह खून से सना परकाल अब भी पकड़े हुए था। शैलेन्द्र के पैंट में तेज़ी से खून बह रहा था। उसका ख़ून देखकर मोहित की साँसें फूल गई थीं।
“मैं बार-बार मना कर रहा था कि डिस्टर्ब मत कर मगर…“ वह चीखे जा रहा था।
तब जाकर सब समझ पाये कि मोहित ने उसकी जाँघ में परकाल घौंप दिया था। जैसे ही वे स्थिति को सही ढंग से समझ पाये, आसपास बैठे सभी लड़के डर के मारे एक-एक फुट दूर सरक गए। शैलेन्द्र खुद उससे दूर सरक कर चीख रहा था। लड़कियाँ भी एकदम से हुए हादसे से भौंचक्की रह गईं।
“अरे कोई लेकर जाओ उसे मेडिकल रूम…!“ विभा चिल्लाई।
राहुल और विवेक उसे मेडिकल रूम लेकर चल दिए। मोहित का उग्र रूप सामने आने से उसे कोई भी हवा-हवाई नहीं कहता था।
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बहुत ही शानदार और यादगार लेखन है भैया इस पर लिखा शब्द नवोदय के उन दिनों की ओर खींच कर ले जाता है और उन यादों को ताजा करता है बकेई वो भी क्या दिन थे उन दिनों जैसे ही दीवाली की छुट्टी खत्म होते है नवोदय को जाना होता था वो माह अक्टूबर-नवंबर हुआ करता था तब आने वाले दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड अपनी दस्तक़त दे देती थी घर से जाते वक्त गरम कपड़े,कंबल,ही ठंड को मात देने के साथी होते थे हमारे दिनों में तो गिने चुने ही लोग थे जिन के पास ठंड भागने को रजाई हुआ करती थी नही तो लगभग लोगो का काम तो कंबल और चादर से ही चलता था वो एक ही बनियान में मानो पूरा समय काटना होता था गई सुबह से उठ कर सुबह की पीटी और फिर दिन भर उन ठंडे क्लास रूम में एक बनियान के साथ सिकुड़ कर बैठना और फुर मास्टर जी के आते ही बाहर क्लास लगाने की गुहार लगाने और ब्रेक टाइम में झुंड बना कर खड़े हो जाना वी 10 मिनेट का ब्रेक टाइम मानो दिन भर की ठंड भगाने का एक मात्र आस होती थी रात के वक़्त चुपके से हाउस मास्टर के जाते ही टिन के पीपा में काजग को जला कर हल्की आंच वही मात्रा एक रात की ठंड का सहारा और फिर वही एक कम्ब और चादर जो साठ कर दुबक कर सो जाना बड़ा ही यादगार था जब भी उन नवोदय वाले दिनों को याद करो तो बहुत कुछ याद आता है और वापस से खीच कर उन बीते नवोदय वाले दिनों की ओर खींच कर ले जाता है बड़ा ही गहरा रिश्ता है वहाँ की जमी से जहाँ पूरा बचपन से लेकर जवानी तक के दिन गुजरे है.!
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*”शैलेन्द्र साहू जनवि”*
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