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परिवर्तन स्वीकार्य है
संक्राति , यह शब्द पढ़ते ही हर वर्ष चौदह जनवरी का दिन याद आ जात है और घुल जाती है मुंह मैं तिल गुड़ की मिठास, आसमान में लहलहाती पतंगे , प्रकृति में गुनगुनी सी गरमाहट, मुस्कुराते फूल , चारों ओर बहती हुई सर्द हवा और याद आते हैं घर में माँ – पिताजी के द्वारा किए जाने वाले कई रीति रिवाज, दान -पुण्य।
हमारे त्यौहार और इन त्यौहारों में अनुसरित करते हुए रीति – रिवाज, या इन त्यौंहारों को मनाने के कारण जो कि प्रकृति के साथ ही मुख्यतः जुड़े रहते हैं। यह सारी व्यवस्था यदि देखी जाए तो हमारे पूर्वजों ने बड़ी सोच समझ कर बनाई होगी, और इन व्यवस्थाओं को बनाने की ठोस वजह यही होगी कि उनकी संतानें इन त्यौहारो से, इन प्राकृतिक परिवर्तनों से कुछ शिक्षा लें। परंतु समय के साथ -साथ ये त्यौहार अत्याधुनिक हो गए हैं , इनमें छुपी शिक्षा तो हम देखते भी नहीं अब , हम इतने बुद्धि जीवी होने के बावजूद यह विचार भी नहीं करते कि प्रकृति के साथ मिलकर इन त्यौहारों को मनाने का महत्व क्या है?
संक्रांति शब्द में ही उसका महत्व छुपा है , संक्रांति अर्थात सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना , हम सब जानते हैं कि सूर्य नित्य चलते रहते हैं बिना रुके, और चलते – चलते ही वह नई राशि में प्रवेश कर जाते हैं। सूर्य का निरंतर चलते रहना तथा इस तरह अन्य राशि में प्रवेश करना हमें यही शिक्षा देता है नित्य चलना जी जीवन है, और इस निरंतर चलते जीवन में कुछ न कुछ परिवर्तन स्वतः ही होते हैं , जिन्हें हमें स्वीकार करना चाहिए।
परंतु मनुष्य इतनी आसानी से परिवर्तन स्वीकार नहीं कर पाता क्योकि वह भावनाओं के साथ जुड़ा होता है वह यदि चलना बंद भी करदे तब भी ज़िंदगी उसे थोड़ा-थोड़ा चलाती जरूर है , पर वह परिर्वतन जल्दी नहीं स्वीकार पाता, उसकी जिन्दगी जिस सुविधा क्षेत्र में चल रही है वह उसे ही सच मान लेता है, पर सच्चाई यह है कि धरती पर कुछ भी एक जैसा नहीं रहता परिर्वतित होता ही रहता है चाहे वह रिश्ते हों , या रिश्तेदार , जिंदगी हो या प्यार कुछ भी टिक कर नहीं रहता समय के साथ परिवर्तन आता ही है और इस परिवर्तन को स्वीकार करना ही होता है , तभी जीवन सहज और सरल हो पाता है।, परिवर्तन थोड़े समय के लिए कष्टकारी लग सकते हैं परंतु परिवर्तन कष्टकारी होते नहीं बस परिवर्तन से हमारे सुविधा क्षेत्र में कुछ हलचल हो जाती है , यही परिवर्तन तिल – गुड़ के समान है मीठा और पोष्टिक। यही परिवर्तन संक्रांत है।
शुचिता चौहान
भोपाल